हाइकु-कवि उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों अथवा प्रकृति के मानवीकरण से परहेज करता है। कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु जैसी नहीं हो सकती। रूपक या उपमा आदि अलंकार कवि की अभिव्यक्ति के लिए बाधक उपकरण हैं। हाइकु-कवि अपने विषय को मूल रूप में ही इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि उपमान की आवश्यकता ही न पड़े। हाइकु अलंकारविहीन सहज अभिव्यक्ति की कविता है।
हाइकु में तुक का महत्त्व नहीं है, पर स्वरानुरूपता, अनुप्रास, लय और यति पर विशेष बल है। अनुप्रास और लय जापानी भाषा की प्रकृति में अन्तर्निहित हैं। ऐसे कितने ही शब्द हाइकु में मिलेंगे जो अपनी ध्वनि में स्वयं ही अनुप्रासमय हैं, यथा किरिगिरिसु (पतंगा), होतोतोगिसु (कोयल), उगयिसि (बुलबुल), कोकोरी (हृदय), तातामि (चटाई), कुजाकु (मोर), कोकागे (वृक्ष की छाया) आदि।
-[ जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ 55-56]
हाइकु में तुक का महत्त्व नहीं है, पर स्वरानुरूपता, अनुप्रास, लय और यति पर विशेष बल है। अनुप्रास और लय जापानी भाषा की प्रकृति में अन्तर्निहित हैं। ऐसे कितने ही शब्द हाइकु में मिलेंगे जो अपनी ध्वनि में स्वयं ही अनुप्रासमय हैं, यथा किरिगिरिसु (पतंगा), होतोतोगिसु (कोयल), उगयिसि (बुलबुल), कोकोरी (हृदय), तातामि (चटाई), कुजाकु (मोर), कोकागे (वृक्ष की छाया) आदि।
-[ जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ 55-56]