tag:blogger.com,1999:blog-335882702024-02-08T03:56:07.937-08:00हाइकु क्या हैUnknownnoreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-7797894261128174662015-07-05T04:03:00.002-07:002021-05-08T07:54:05.787-07:00हाइकु में अलंकार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हाइकु-कवि उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों अथवा प्रकृति के मानवीकरण से परहेज करता है। कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु जैसी नहीं हो सकती। रूपक या उपमा आदि अलंकार कवि की अभिव्यक्ति के लिए बाधक उपकरण हैं। हाइकु-कवि अपने विषय को मूल रूप में ही इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि उपमान की आवश्यकता ही न पड़े। हाइकु अलंकारविहीन सहज अभिव्यक्ति की कविता है।<br />
हाइकु में तुक का महत्त्व नहीं है, पर स्वरानुरूपता, अनुप्रास, लय और यति पर विशेष बल है। अनुप्रास और लय जापानी भाषा की प्रकृति में अन्तर्निहित हैं। ऐसे कितने ही शब्द हाइकु में मिलेंगे जो अपनी ध्वनि में स्वयं ही अनुप्रासमय हैं, यथा किरिगिरिसु (पतंगा), होतोतोगिसु (कोयल), उगयिसि (बुलबुल), कोकोरी (हृदय), तातामि (चटाई), कुजाकु (मोर), कोकागे (वृक्ष की छाया) आदि।<br />
<br />
-[ जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ 55-56] </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-62232726572743249302013-12-04T08:10:00.002-08:002015-07-05T04:01:13.568-07:00किरेजि क्या है ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
हाइकु शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है "किरेजि"। "किरेजि" का स्पष्ट अर्थ देना कठिन होगा। शाब्दिक अर्थ है "काटने वाला अक्षर"। "किरेजि" जापानी कविता में शब्द-संयम की आवश्यकता से उत्पन्न रूढ़ि-शब्द है जो अपने आप में किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक न होते हुए भी पाद-पूर्ति में सहायक होकर कविता के सम्पूर्णार्थ में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। सोगि (1420-1502) के समय में 18 किरेजि निश्चित हो चुके थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती रही। महत्त्वपूर्ण किरेजि है- या, केरि, का ना, और जो। "या" कर्ता का अथवा अहा, अरे, अच्छा आदि का बोध कराता है।<br />
यथा-<br />
आरा उमि या / सादो नि योकोतोओ / आमा नो गावा<br />
अशांत सागर / सादो तक फैली है / नभ गंगा<br />
<br />
-[ जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, डा० सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ 55-56]<br />
<div>
<br /></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-72638267970446911712013-12-03T22:31:00.001-08:002013-12-03T22:34:54.024-08:00हाइकु क्या है....! डा० सत्यभूषण वर्मा के शब्दों में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
हाइकु को कुछ पाश्चात्य समीक्षकों ने प्रकृति-काव्य भी कहा है। ऋतु का हाइकु साथ गहरा सम्बंध रहा है। प्रकृति-चित्रों की सजीवता ऋतु से जुड़ी रहती है। प्रायः हाइकु की एक पंक्ति में ऋरु का उल्लेख होता है अथवा ऋतु का संकेत-बोधक कोई प्रतीक-शब्द होता है। हाइकु-दृष्टि मनुष्य को प्रकृति के एक अंग के रूप में देखती है। यहाँ तक कि मनुष्य के कार्य-व्यापार भी न रहकर कहीं-कहीं प्रकृति के साथ जुड़ जाते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
हिन्दी हाइकु में एक भिन्न स्वर उभर रहा है। वह स्वर है सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्य का। हिन्दी हाइकु ने मूल हाइकु की लघुता और संक्षिप्तता को अपनाया है पर वस्तु-बोध उसका अपना है। इसे अस्वीकार करना न तो सम्भव होगा और न उचित ही। परन्तु केवल एक सूत्र-वाक्य अथवा शब्द-क्रीड़ा से रचित किसी भी १७ अक्षरी तीन पंक्तियों वाली रचना को "हाइकु" संज्ञा नहीं दी जा सकती। हाइकु की तीन पंक्तियों में प्रत्येक पंक्ति की स्वतंत्र सार्थकता आवश्यक है। प्रत्येक पंक्ति एक समन्वित प्रभाव की सृष्ति करती है। प्रत्येक शब्द साक्षात् अनुभव होता है और कविता के अन्तिम शब्द तक पहुँचते ही एक पूर्ण बिम्ब, एक गहन भाव-बोध पाठक की चेतना को अभिभूत कर लेता है। हाइकु मूलतः एक भाव या स्थिति के सौन्दर्यानुभूति-जन्य चरम क्षण की अभिव्यक्ति की कविता है। जापानी कवि बाशो के अनुसार एक अच्छा हाइकु क्षण की अभिव्यक्ति होते हुए भी किसी शाश्वत जीवन-सत्य की अभिव्यक्ति होता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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-डा० सत्य भूषण वर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
[हाइकु पत्र ६, सितम्बर १९७९ से साभार]</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-41871241835492630932013-04-09T19:06:00.001-07:002013-04-09T19:06:19.609-07:00कविता का फलक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
कविता का फलक बहुत विस्तृत होता है, प्रत्येक विधा का अपना सौन्दर्य है, अपनी भाव भंगिमा है, अपना महत्त्व है, कोई विधा कम या बढ़तर नहीं होती है, किसी विधा विशेष को आपने किस सीमा तक साधना करके साध लिया है यह महत्त्व रखता है। हाइकु भी एक कविता है, हाइकु में जो कुछ कहा जाता है उससे अधिक अनकहा रह जाता है पाठक हाइकु को पढ़ने के बाद उस अनकहे को भी खोजने का प्रयास करता है और इस तरह पाठक भी सृजनशीलता से जुड़ जाता है। यही कारण है कि किसी हाइकु के अलग अलग अर्थ लगाये जा सकते हैं, किसने क्या अर्थ लगाया है यह उसकी क्षमता पर निर्भर करता है। प्रतीक और बिम्ब जितने सहज होंगे हाइकु उतना ही प्रभावशाली होगा।<br />
<br />
डा० जगदीश व्योम<br />
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Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-20412640310320692332012-06-25T10:22:00.000-07:002012-06-25T10:22:12.282-07:00धर्मयुग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
"हाइकु का जन्म जापानी संस्कृति की परम्परा, जापानी जनमानस और सौन्दर्य चेतना में हुआ और वहीं पला है। हाइकु में अनेक विचार-धाराएँ मिलती हैं- जैसे बौद्ध-धर्म ( आदि रूप, उसका चीनी और जापानी परिवर्तित रूप, विशेष रूप से जेन सम्प्रदाय ) चीनी दर्शन और प्राच्य-संस्कृति। यह भी कहा जा सकता है कि एक "हाइकु" में इन सब विचार-धाराओं की झाँकी मिल जाती है या "हाइकु" इन सबका दर्पण है।"<br />
<br />
-(धर्मयुग, १६ अक्टूबर १९६६)<br />
</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-17015272185431576212012-06-11T17:57:00.002-07:002012-06-11T17:57:41.117-07:00प्रो० नामवर सिंह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
"हाइकु एक संस्कृति है, एक जीवन-पद्धति है। तीन पंक्तियों के लघु गीत अपनी सरलता, सहजता, संक्षिप्तता के लिए जापानी-साहित्य में विशेष स्थान रखते हैं। इसमें एक भाव-चित्र बिना किसी टिप्पणी के, बिना किसी अलंकार के प्रस्तुत किया जाता है, और यह भाव-चित्र अपने आप में पूर्ण होता है।"<br />
-प्रो० नामवर सिंह<br />
[ हाइकु पत्र, 1 फरवरी 1978]<br />
</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-77798655164079657632012-06-11T17:27:00.002-07:002012-06-11T17:27:48.444-07:00शब्द-संयम के साथ भाव-संयम भी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
शब्द-संयम के साथ भाव-संयम भी हाइकु के लिये अनिवार्य है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में, " एइ कवितागुलेर मध्ये जे केवल वाक्-संयम ता नय, एर मध्ये भावेर संयम।" शब्दों में जो कहा गया है, वह संकेत मात्र है, शेष पाठक की ग्रहण-शक्ति पर छोड़ दिया जाता है। वह जितना कहता है, उससे अधिक अनकहा छोड़ देता है और वह अनकहा उससे अधिक महत्वपूर्ण है जो कह दिया गया है। " ओ ए मारु" की रचना है-<br />
पकड़नेवालों को भी<br />
दे रहे हैं प्रकाश<br />
ये जुगुनू।<br />
<br />
[ ओउ हितो नि<br />
आकारि ओ मिसुरु<br />
होतारू का ना ]<br />
<br />
"जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता, सत्यभूषण वर्मा, पृष्ठ, 45"<br />
</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-71056313711509067332011-05-29T20:59:00.000-07:002011-05-29T20:59:19.090-07:00प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">हाइकु मूलतः जापानी छन्द है। जापानी हाइकु में वर्ण-संख्या और विषय दोनों के बंधन रहे हैं। हाइकु की मोटी पहचान 5 , 7 , 5 के वर्णक्रम की तीन पक्तियों की सत्रह-अक्षरी कविता के रूप में है और इसी रूप में वह विश्व की अन्य भाषाओं में भी स्वीकारा गया है। महत्त्व वर्ण-गणना का इतना नहीं जितना आकार की लघुता का है। यही लघुता इसका गुण भी बनती है और यही इसकी सीमा भी। जापानी में वर्ण स्वरान्त होते हैं, हृस्व "अ" होता नहीं। 5 , 7 , 5 के क्रम में एक विशिष्ट संगीतात्मकता या लय कविता में स्वयं आ जाती है। तुक का आग्रह नहीं है। अनुभूति के क्षण की वास्तविक अवधि एक निमिष, एक पल अथवा एक प्रश्वास भी हो सकती है, अतः अभिव्यक्ति की सीमा उतने ही शब्दों तक है जो उस क्षण को उतार पाने के लिए आवश्यक है। यह भी कहा गया है कि एक साधारण नियमित साँस की लम्बाई उतनी ही होती है, जितनी में सत्रह वर्ण सहज ही बोले जा सकते हैं। कविता की लम्बाई को एक साँस के साथ जोड़ने की बात के पीछे उस बौद्ध-चिन्तन का भी प्रभाव हो सकता है, जिसमें क्षणभंगुरता पर बल है।<br />
<br />
-प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा <br />
( " हाइकु " (भारतीय हाइकु क्लब का लघु पत्र) , अगस्त- 1978, सम्पादक- डा० सत्यभूषण वर्मा, से साभार) <br />
</div>Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-44250237745924313342011-05-22T03:53:00.001-07:002011-05-22T03:55:43.234-07:00कल्याणमल लोड़ा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">हाइकु कविता सहज अभिव्यक्ति की ही नहीं, सहज अनुभूति की भी कविता है। हाइकु में कहे गये का महत्त्व इसलिए अधिक है कि वह बहुत कुछ अनकहे की समर्थ भूमिका स्पष्ट करता है, जिससे वह भी सम्प्रेषित होकर 'कहा गया' ही बन जाता है। मैं कविता के न तो वैज्ञानिकीकरण का समर्थक हूँ और न उसके अनावश्यक बौद्धिकीकरण का। कविता को सहज होना इसलिए आवश्यक है कि वह जीवन के मौन को मुखर कर सके। हाइकु का व्यंग्य बड़ा ही समर्थ है। ये कविताएँ जीवन की लम्बी दौड़ में लोकप्रिय और सार्थक होंगी - यह मेरा विश्वास है।</div>- कल्याणमल लोड़ा<br />
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग<br />
कलकत्ता विश्व विद्यालय<br />
<br />
(हाइकु (भारतीय हाइकु क्लब का लघु पत्र) दिसम्बर- 1978, सम्पादक- डा० सत्यभूषण वर्मा, से साभार) </div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-33588270.post-90744948486320031982011-05-15T20:33:00.000-07:002011-05-16T05:40:29.348-07:00अज्ञेय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;">जितना वह हमारे निकट है। ...... हम लोग आज शब्दों के अपव्यय के युग में जी रहे हैं। उसमें इस तरह की कविता की ओर ध्यान आकृष्ट करना इसलिए भी उपयोगी और महत्त्व का है कि हम शायद नये सिरे से कविता की ओर शब्दमात्र की सत्ता पहचान सकते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि अधिक शब्द कहने से ही अधिक बात कही जाए। कविता को, कम से कम मैं तो अभिव्यक्ति प्रधान नहीं सम्प्रेषण प्रधान मानता हूँ। इसलिए यदि कविता दूसरे तक पहुँचते हुए दूसरे से भी उतना ही आमंत्रित करती है, जितना कि कवि उसे दे रहा है, मैं उसको कविता की बहुत बड़ी सफलता मानता हूँ।</div><div style="text-align: justify;"><br />
<br />
-अज्ञेय<br />
हाइकु (भारतीय हाइकु क्लब का लघु पत्र) दिसम्बर- 1978, सम्पादक- डा० सत्यभूषण वर्मा</div></div>Unknownnoreply@blogger.com0